गीत और नृत्य का अनोखा अविष्कारः बंजारा नृत्य

भारतीय संस्कृति में कला, संगीत एवं विभिन्न लोक परंपरा की विरासत हजारों सालों से जन-मानस में बसी है। भारत में विभिन्न संप्रदाय, लोक-संस्कृति, विचारधारा, रीति-रिवाज और विभिन्न त्यौहारों के अवसर पर किये जानेवाले लुभावने नृत्य और जीवनशैली ने संस्कृति को समृद्धि प्रदान की है। इस गरिमामयी संस्कृति ने विश्व पटल पर अपनी अनोखी पहचान बनाई है। कहते है ना, भाषा संस्कृति को जन्म देती है। भारत की समृद्ध संस्कृति ने कला को जन्म दिया है।
कला मानवी जीवन का आविष्कार होती है। कोई भी कल्पना अथवा अभिव्यक्ति जब मूर्त रूप धारण कर लेती है, तब वही कल्पना या अभिव्यक्ति कला को जन्म देती है। कला का आविष्कार नहीं किया जा सकता। कला का जन्म स्वाभाविकता से होता है। कोई कलाकार कला को जन्म नहीं देता वह कला की साधना करता है। एक ऐसा ही आविष्कार है, “बंजारा नृत्य” —–
बंजारा नृत्य का आविष्कार किसी कलाकार ने नहीं किया, उन लोगों ने किया जो अलग-अलग प्रातों में घुमन्तु या खानाब़दोशी जीवन बीता रहें हैं। हाँ,यह ख़ानाबदोशी लोग है। इन ख़ानाबदोशियों की संस्कृति, त्यौहार और ईश्वर के प्रति उनकी भावना ने ही “बंजारा नृत्य” का आविष्कार किया है। घुमन्तु या ख़ानाबदोशी भारत के कई इलाकों में अपनी आजीविका के लिए अपनी सांस्कृतिक विरासत को लेकर सदैव घुमते रहते हैं। घुमन्तुओं की सांस्कृतिक विरासत उनके अस्तित्व का माध्यम बन जाती है, जो जीवन के कई प्रसंगों में उनका साथ निभाती है। इस कला का आविष्कार भारत के प्रत्येक प्रांत में पाया जाता है। भारत माता की गोद में कत्थक, भरतनाट्यम, कथकलि, कूचीपूड़ि, गोंधळ, लावणी, गरबा आदि नृत्य खिल उठे। वाद्यों की श्रेणियों में भगवान शंकर जी का डमरू, माँ भगवती की वीणा, गणेश जी के मृदंग ने नादब्रह्म का रूप धारण किया। गीतों में धृपद-धमार, ख्याल, टप्पा, ठुमरी, कजरी, भजन और टप्पा आदि की गायनशैली ने भारतीय संस्कृति को सुरिला बनाया।
इस लोकसंस्कृति में बंजारा नृत्य अत्यंत सादगी से परिपूर्ण है। नृत्य की कोई अलग-सी वेशभूषा नहीं है। रणरणती धूप में दिनभर कड़ी मेहनत से थके हुए तन को तरोताजा करना और प्रभु का नामस्मरण करना, प्रभु के गुण में तल्लिन हो जाना। बस! यही इस नृत्य की फलश्रुति है। इस नृत्य के लिए कोई अलग मंच नहीं है। जहां यह लोग काम करते है, चाहे वह खेत खलिहान हो, या रास्ता हो, इनकी बस्ती  अथवा अन्य कोई जगह। यही इनका रंगमंच है। इनका रोज़ाना जीवन की कहानी को ही इनके गीत बयान करते हैं, भले तुक मिले न मिले आनंद जरूर मिलता है। यही है, “बंजारा नृत्य” ——
बंजारा लोगों को अलग-अलग प्रांतो में बंजारी, लमाणी, लंबाड़ी, सुकलीर, मथुरा, बंजारा, चारण, गोर बंजारा और कचलीवाले बंजारा आदि वर्गीकृत किया जाता है। आन्ध्र प्रदेश के निज़ामाबाद जिले में बंजारों को लंबाड़ा और सुगाळी, महाराष्ट्र में लमाण, दिल्ली में शिरकन, राजस्थान और केरल में गवरिया, गुजरात में चारण एवं अन्य प्रांतों में बंजारों के नाम से संबोधित किया जाता है। बंजारों के मूल स्त्रोत का अनुसंधान करना अत्यंत कठिन है, लेकिन कुछ मान्यताओं के अनुसार बंजारों का मूल स्त्रोत राजस्थान माना गया है। प्रसिद्ध विद्वान एन.एफ.कंबलीज के अनुसार, बंजारा शब्द का उल्लेख सन् 1502 में पहली बार किया गया, जब धोलपुर के लोदी साम्राज्य पर सिकंदरशाह ने हमला बोल दिया था।
बंजारों में पुरूषों की वेशभूषा अत्यंत सामान्य-सी होती है। महिलाओं में कुछ खास किस्म के जेवरात एवं चोली, घागरा, घुमटा, फूंदा और चोटला आदि आभूषण पहने जाते हैं। महिलाएं पैरों में एक विशेष गोल आकार का आभूषण पहनते हैं। दोनों हाथों में चुड़ियाँ और कंगण होते हैं। माथे पर विशेष आकार की बिंदी होती है, विवाहित महिलाएं सिर पर लाल रंग की चुनरी पहनती है। यह बंजारों की पारंपरिक वेशभूषा है। महिलाओं के साड़ी पर एक विशेष गोल आकार की डिजाइन बनाई जाती है और उसमें शिशे के आकार का आईना लगाया जाता है। एक किवदन्ती के अनुसार, “बंजारे लोग अपनी आजीविका के लिए जंगलों में भटकते थे। बंजारा महिलाओं का इस प्रकार के लिबास की जरुरत महसूस होती थी, क्योंकि इससे प्रकाश परावर्तित होकर उन पशुओं के आँखों पर पड़ता था और पशु डर जाते थे।
आजकल किसानों को भी अपनी फसल की रक्षा के लिए कुछ ऐसी तरकिबे लडानी पड़ती है। बंजारे लोग अपनी आजीविका के लिए खेती या खेती के लिए हथियार बनाने, जड़ी-बूटियों की दवाईयां बनाकर बेचने का कार्य करते थे। गाना-बजाना बंजारों का पारंपरिक व्यवसाय नहीं है। अपना मन बहलाने के लिए बंजारे लोग विभिन्न तीज-त्यौहारों पर गीत एवं नृत्य का आनंद उठाते हैं।
बंजारा गीतों का भाषा सामान्य होती है और नृत्य के पदन्यास भी अत्यंत आसान होते है और कत्थक अथवा भरतनाट्यम की तरह
[9:27am, 11/13/2014] शिवम
नायक: इस नृत्य में पदन्यास अथवा भाव-भंगिमाओं की तुलना में साधारण महत्व दिया जाता है। नृत्य की रचनाएं कुछ पारंपरिक अथवा कुछ रचित होती है और तीज, त्यौहारों के गीत इसमें शामिल किये जाते है। दीपावली के अवसर पर बंजारा समाज की महिलाएं उनके समुदायों के बीच “चोको” (रंगोली, जो मंदिर या अंगण में निकाली जाती है।) के चारों ओर गोलाई में खड़े होकर गीत गाते हैं। बंजारों की बस्ती गांव से अलग होती है। महाराष्ट्र में बंजारों की बस्ती को “तांडा”कहते हैं। तांडे में मंदिर भी होता है। दीपावली अथवा किसी भी त्यौहारों के अवसर पर बंजारा महिलाओं प्रस्तुत गीत इस प्रकार हैः-
“बाई भाया बेचेरो देवळ
बाई बापू देसेरो देवळ
बाई चोको पूरेरो देवळ
बाई पोथी वाचेरो देवळ
बाई नायकी करेरो देवळ
ताई शोभा आरि तारे देवळ”

(अर्थात्- इस गीत में बंजारा महिलाओं के संवाद का चित्रण किया है। वे महिलाएं एक दूसरी से कह रही है कि यह मंदिर किसने बनाया है। मंदिर के सामने अथवा आस-पास जेठ बैठें हैं। मंदिर को चारों से रंगोली से सुशोभित किया है। मंदिर में पूजा करने के लिए पोथी पढ़ी जा रही है। इस मंदिर में भगवान की मूर्ति शोभायमान लग रही हैं।)
बंजारों के तांडे आधुनिक सेवा-सुविधारहित होते हैं। बंजारा महिलाएं कुएं से पानी भरती है। यह महिलाएं पानी भरते समय कुछ गीत प्रस्तुत करती हैं, उनमें एक रचना प्रस्तुत हैः-
उंडो कूवो उंडी वावूड़ी ।।धृ।।
निर्मळ पाई रो टो टो
मारो ईरा तरसो जाई पाई रो टो टो,
हाथेधड़ी वाळो माई ईरा तरसो जाई।
मारो बापू तरसो जाई,
मारो ईरा तरसो जाई,
निर्मळ पाई रो टो टो,
मारो ईरा तरसो जाई
मारो बापू तरसो जाई।
हाथ चेला वाळोये,
मारो बापू तरसो जाई,
मारो ईरा तरसो जाई।

बंजारों के गीत और नृत्य अत्यंत लुभावने ऐक मनमोहक होते हैं। ताल-वाद्यों के रूप में खंजरी अथवा डफ का प्रयोग किया जाता है। एक ओर रचना प्रस्तुत हैं, जिसमें बंजारा महिला भगवान तिरूपति के दर्शन करना चाहती है। वह अपने पिताजी से तिरूपति जाने के लिए निवेदन कर रही हैं, इस गीत के माध्यम से –

“बाई बापो जारो, गिरि बालाजीन्
मई आऊं बापू तारे सोबतीन्
बाई इराजारो गिरि बालाजीन्
मई आऊं ईरा तारे सोबतीन्
बाई काका जारो गिरि बालाजीन्
मई आऊं काका तारे सोबतीन्

बंजारा गीतों की भाषा राजस्थानी एवं गुजराती से मिलती-जुलती है। स्थानीय भाषा का प्रभाव भी इन गीतों में दिखाई देता है। बंजारों के गीत लोकगीतो की श्रेणी में आते हैं।

यह एक अनोखा संगम है,
गीतों,वाद्यों और नृत्यों का
“बंजारा नृत्य”…..
गोर कैलास डी. राठोड
संस्थापक/अध्यक्ष
जय सेवालाल बंजारा सेवा संस्था ठाणे,महाराष्ट्र राज्य…