*जय गोर* *जय सेवालाल*
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*धर्म और गोरधर्म……एक चिंतन*
धर्म की परिभाषा
धर्म धारण से बना हैं,अर्थात जिसे धारण किया जा सके उसे धर्म कहते हैं। इसी धारन की चीजो को गुण कहते हैं।और यह उल्लेखनीय है कि धर्म शब्द मे गुण केवल मनुष्य से संबंधीत नही हैं।पदार्थ के लिए भी धर्म शब्द प्रयुक्त होता हैं।जैसै पानी का धर्म बहना,अग्नी का धर्म है प्रकाश,उष्मा देना और संपर्क मेंआने वाली वस्तू को जलाना।मानव का धर्म है भुके को रोटी देना,प्यासे को पानी देना,व्यापकता के दृष्टीकोन सेधर्म को गुण कहना सजीव निर्जीव दोनो केदृष्टीकोनसे अर्थ मे नितांतही उपयुक्त हैं।पदार्थ हो या मनुष्य पुरी पृथ्वी के किसी भी कोने मेंबैठे मानव यापदार्थ का धर्म एकही होता है।
क्या सही में गोर धर्म है ?
मानव के संदर्भ में बात करे तो वह केवल मानव धर्म है।लेकीन पिछले कईं सालो में आलग आलग संप्रदायो को धर्म कहनेकी परंपरा बनी है। परिणाम स्वरुप आज दुनिया में लगभग 300 से जादा धर्म मौजुद है।लेकीन व्यापक रूप से कुछ थोडेसेंही धर्म प्रचलीत हैं।जिनमे ईसाई, इस्लाम,बौद्ध,हिंदू, जैन,यहुदी,पेगन,वूडू,पारसी, शींतो, सिख इ.का नाम सर्वसृत है। इनके आलावा भी कई धर्म आपना आस्तीत्व बनाये हुए हुए हैं।तो कुछ आपना आस्तित्व खो चुके है।
संप्रदाय एक पंरंपरा माननेवालो का समुह होता हैं।उनका एक या आधिक परलौकिक शक्ति में विश्वास होता हैं।उनके आपने स्वतंत्र रिती रिवाज,परंपरा,पुजा पध्दती होती है। गोर संप्रदाय का भी खुद का आपनी श्रद्धा,परंपरा,रिती रिवाज है।औरोकी तुलना मे गोर संप्रदाय भी एक स्वतंत्र धर्म ही है।वह आपनी पहचान पुरी तरह से आलग ही रखता है।
गोर जन भी एक परलौकिक शक्तिपर विश्वास रखते है।उसके प्रती ‘भोग’ लगाकर, ‘आरदास’, ‘विनती’ बोलकर, आपना विश्वास जताते है।
कुछ परिस्थीतींयो की वजह से गोर गन बिखर गयें, निर्वाह करने कि समस्या के सामने धर्म गौन बना। जिनके पास साधन थे,समय था उन्होने आपने धर्म का प्रचार प्रसार चालू रखा।विकास भी साधा,हम पिछड गये। हम केवल रित धाटी संस्कृती तक ही मर्यादीत रहै,जो कि हमारा मुल धर्म है।
धर्म की आवश्यकता
आज विकसीत मुख्यधारा से जुडने के लिए यह अनिवार्य हो गया हैं कि धर्म कि वास्तविक विवेचना सही अर्थो में कि जाए। गोर समाज के कुछ बिंदुओ को आधार बना कर एवं इनकी संक्षिप्त विवेचन करके धर्म शब्द का सही अर्थ सबको समजाना आज अनिवार्य हो गया हैं।वस्तुतः गोर जनों ने धर्म को हमेशाही आदर्श आचार संहीता के रुप में स्विकारा हैं। और इसमे व्यक्तिगत उत्कर्ष व सामाजिक हित दोनो का समन्वय रखा गया हैं।इसमेही इसकी सुदृढता,अनुशासन और सुगठन प्रतीत होता है। इसी कारण इतने लंबे समय तक बिना किसी आधार के यह धर्म आस्तित्व में हैं।
धर्म कि आवश्यकता ध्यान मे रखते हुये आज तक समय समय पर विद्वानोने कंई धर्मो कि स्थापना कि,प्रसार किया।आज दुनिया के कंई विकसीत राष्ट्र धर्म के विकास और संरक्षण मे ध्यान दे रहें है।और हम धर्म का वास्तविक अर्थ सामान्यतः धार्मीक कट्टरता के रुप में स्वीकार करते हैं।यह हमारी संकुचीत एवं संकिर्ण मानसिकता कि उपज है जिसके परिणाम स्वरुप धर्म को आधार बनाकर हम सामाजीक वर्गभेद,अराजकता,संघर्ष,आतंकवाद को फैलाते है।हम झुठे अंध विश्वास के भरोसे,अंधी भक्ति के कारण धर्म के वास्तविक स्वरुप से अनभिज्ञ रहकर सामाजिक एवं मानसिक पतोन्मुख दलदल में फसते चले जा रहें हैं,जो अनुचीत है।वास्तव मे हम धर्म को सर्व जन हिताय, सर्व जन सुखाय,सर्व धर्म समभाव एवं विश्वबंधुत्व की भावना से जोडकर जीवन की कर्तत्व शैली के रुप मे निरुपित कर सकते है।धर्म वह पवित्र अनुष्ठान हैजिससे चेतना काशुद्धिकरण होता है।धर्म वह तत्व है जिसके अचरन से व्यक्ती अपने जीवन को चरितार्थ कर पाता है।यह मनुष्य में मानवीय गुणो के विकास की प्रभावना है,सार्वभौम चेतना का संत्संकल्प है।
*क्या हम बडे विद्वान हो गये है।*
समय की जरुरत देखकर कईं महामानवनो समाज नियंत्रण और समाज हित के लिए धर्म कि स्थापना की प्रसार किया।क्या आज हम इतने ज्यादा विद्वान होगये हैं,कि इन धर्मो कि आवश्यकता पर बहस कर रहे है।हम सब जानते है डॉ.बाबासाहेब आंबेडकर ने भी एक धर्म से छूटकारा पाने के लिए दुसरे धर्म (धम्म) को आपनाया था।मानव समुहप्रिय प्राणी है।और समुह का विकास समुह के अंतरीक रचनापर भी निर्भर करता है।
*डॉ.कृष्णा राठोड,औरंगाबाद,*
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