बंजारा आदिवासियों से रूबरू- पहचान की तलाश

आदिवासी जगत
मंगलवार, 31 मार्च 2015
बंजारा आदिवासियों से रूबरू- पहचान की तलाश

बंजारा आदिवासी समाज पर सोचते हुए मुझे इस वक्त याद आ रहा है बंगलुरु जब वहां अखिल भारतीय बंजारा भाषा सेमिनार आयोजित किया गया था. बंजारा समाज के प्रतिष्ठित बुद्धिजीवियों से मेरा परिचय वहीँ हुआ था. वैसे मैं उनमें से कुछ को पहले से जानता था. सेमिनार के जिस सत्र में मुझे अपनी बात कहनी थी तब मेरे मन में यह बात बैठी हुई थी कि बंजारा लोग मूलत: राजस्थान से ताल्लुक रखते हैं. उसी प्रांत से उनका निकास है जो अलग अलग काल-खण्डों में हुआ जिसकी खास वज़ह आर्य-अनार्य संग्राम श्रृंखला, अकाल तथा अन्यथा रोजी रोटी की तलाश रही. तभी से शायद उनका नाम घूमंतू बंजारा पड़ा, अन्यथा किसी ज़माने में वे भी अन्य आदिवासी समुदायों की भांति फलवती धरा के मालिक हुआ करते थे. आदिवासियों के विस्थापन के प्राचीन और आधुनिक इतिहास का मुद्दा अलग से महत्वपूर्ण विमर्श की दरकार रखता है जिस पर पृथक से बात की जानी चाहिए. यहाँ इतना ही कि भारतीय जन समुदायों में यही एक ऐसी कौम मुझे दिखती है जो कहीं भी चले गये हों मगर अपनी  संस्कृति विशेष रूप से भाषा और पहनावा परंपरागत ही रखते गये. इनकी भाषा को ‘गोरबोली’ के नाम से जाना जाता है. और वस्त्राभूषण तो चिरपरिचित अंदाज़ में हम देखते ही रहे हैं खासकर घाघरा-लूगड़ी और चूड़ियाँ. इनका विख्यात गीत ‘बंजारा’ ‘चमचम चमके चूनड़ी बंजारा रे…. आ थोड़ो सो म्हारे संग नाच ले बंजारा रे…’ सुनने वालों को भाव विभोर कर ही देता है.
बंगलूरु के उसी सेमिनार में मेरी मुलाकात हुई थी दिल्ली से आये भाई राधेश्याम मालचा से जो अपने वक्तव्य के दौरान इतने भावुक हो गये थे कि उनसे बोला ही नहीं गया. जो बंजारा समाज किसी ज़माने में वर्तमान दिल्ली के राष्ट्रपति भवन व संसद तथा हैदराबाद के बंजारा हिल्स के इलाके का मालिक था वह आज अपनी बस्तियों जिन्हें ‘टांडा’ कहा जाता है, को गाँव का दर्ज़ा दिलाने के लिए संघर्ष कर रहा है. जिस मानवता की बस्तियों को पहचान नहीं दी जाये उससे बड़ी अस्मिता की त्रासदी क्या होगी. यही तो दुःख था राधेश्याम मालचा का. उसी ने मुझे बताया था लक्खीशाह बंजारा के बारे में जिसका नाम लक्खीशाह लाख टकों के मालिक होने से सम्बन्ध नहीं रखता बल्कि लाख की संख्या में बैलों के रेवड़ के मालिक होने से सम्बन्ध रखता था. वह हुआ था सिख गुरू गोविन्द सिंह के ज़माने में. जब औरंगजेब के हुकुम से गुरू गोविन्द सिंह के दोनों पुत्रों की हत्या कर दी थी तब यही लक्खीशाह बंजारा था जो बादशाही बहशियाना से उन दो किशोरों को तो नहीं बचा सका लेकिन उनके कटे हुए शीशों को अपनी बैल गाड़ियों में छिपाकर गुरू गोविन्द सिंह तक पंहुचा सकने का साहस कर सका था.
राधेश्याम मालचा स्वयं को उसी बंजारा महापुरुष का वंशज मानता है. उसी राधेश्याम ने मुझे लक्खीशाह बंजारा की कब्र का ठिकाना बताया था जो राष्ट्रपति भवन के पिछवाड़े में सुरक्षित जंगल में अवस्थित है. बंगलूरू से आने के बाद जब मुझे दिल्ली जाने का अवसर मिला तो मैं सीधा गया था लक्खीशाह बंजारे की उसी कब्र को तलाशने. मैंने वह स्थान देखा है. राधेश्याम ने ही मुझे बताया था कि अंग्रेजों द्वारा अपनी राजधानी कलकत्ता से दिल्ली शिफ्ट करने से पूर्व राजधानी का खास क्षेत्र अर्थात राष्ट्रपति भवन, संसद, नार्थ-साऊथ ब्लोक्स वाली जगह पर लक्खीशाह बंजारा का टांडा (बस्ती) हुआ करता था जहाँ उसका कबीला एक लाख की तादात में बैलों के साथ रहा करता था. इर्द गिर्द अन्य गाँव थे. जहाँ तक मेरी जानकारी है इक्कीस गांवों की भूमि पर कब्ज़ा करके अंग्रेजों ने नई दिल्ली को बसाया था. वैसे दिल्ली सन सौलह सौ उनचास से अठारह सौ सत्तावन तक मुगल बादशाहों की राजधानी रही थी मगर वह आज की पुरानी दिल्ली हुआ करती थी जिससे ग़ालिब को बेहद मुहब्बत थी.
ब्रिटिश सम्राट जार्ज पंचम और महारानी मेरी के दिल्ली आगमन के अवसर अर्थात दिनांक बारह दिसम्बर उन्नीस सौ ग्यारह के दिन आयोजित दिल्ली दरबार में दिल्ली को राजधानी बनाने की घोषणा की गयी थी. राधेश्याम ने मुझे यह जानकारी भी दी कि उन्नीस सौ ग्यारह में लक्खीशाह के वंशजों से दिल्ली की वह हृदय-भूमि सौ साल के पट्टे के आधार पर अधिगृहित की बताई. मैं दो हजार बारह के किसी दिन पुन: दिल्ली में था जब मैंने फोन पर राधेश्याम से कहा था कि ‘अब दिल्ली पट्टे के सौ वर्ष पूरे हो चुके हैं. अपनी पुश्तैनी जमीन वापस लेने का वक्त आ गया है.’ हम सब जानते हैं ग्लोबलाईजेशन और हाई-टैक के इस युग में बंजारा समाज से दिल्ली बहुत दूर हो गयी है. अब तो भूमि अधिगृहण के नवीन अध्यादेश के बाद किसानों और आदिवासियों की बचीखुची जमीनों पर भी तथकथित विकास के नाम पर सरकार तथा देशी विदेशी पूंजी-कंपनियों की गिद्ध दृष्टि लगी हुई है. कब कहाँ बिना नोटिस कब्ज़ा कर लिया जाये और वासिंदों को विस्थापित कर दिया जाये, कहा नहीं जा सकता.
हैदराबाद की बंजारा हिल्स के करीब से तो मैं दर्ज़नों दफा गुजारा हूँ जहाँ कभी बंजारों की बस्ती हुआ करती थी अब सेठों, राजनेताओं, फ़िल्मी हस्तियों के आलीशान भवन हैं. लेकिन सब चीजों का फ़ैसला वक्त ही करता रहा है. इस बार जब मैं हैदराबाद गया तो पता चला कि बंजारा हिल्स कोलोनी में जलापूर्ति की विकट समस्या आ पड़ी है. जल जैसी अनिवार्य वस्तु के अभाव में ‘बड़े आदमियों’ की कोठियों के लान, बगीचों व बाथरूमों की रौनकें फीकी पड़ती जा रही हैं. लोग उन भवनों को बेचने लगे हैं. सुना है वहां जमीनों एवं भवनों की कीमतें काफी कम हो गयी हैं. बंजारा समाज तो इस दशा में है नहीं कि अपनी जमीनों को खरीदकर वहां पुन: डेरा डाल सके. अब भी खरीदने वाले कोई और ही होंगे. यहाँ मुझे मेरी एक नन्हीं कविता याद आ रही है. ‘जो लोग नहीं थे जमीनों से जुड़े, वे ही जमीनों को ले उड़े.’
बंजारा लोग बड़े ईमानदार होते हैं यह मैंने बचपन में सुना था. तभी से  बंजारा समाज के प्रति मेरी रूचि रहती आई है. मेरे गाँव में बंजारा समाज की दोनों खांप आया करती थी जिनमें प्रमुख ‘बड़द’ बंजारे जो बड़द अर्थात बैलों का व्यापार करते थे. दूसरे थे लमाना या लम्बाना अथवा लम्बानी जो लवण यानी कि नमक का कारोबार वस्तु विनिमय पद्दति के आधार पर किया करते थे. मेरे गाँव के दो तीन साहूकार बंजारों को ब्याज पर रकम दिया करते थे. तभी मैंने यह सुना था कि बंजारों को दिया गया पैसा कभी नहीं डूबता. हमारे इलाके में बंजारों के बहुत सारे कुँए अभी भी मिल जायेंगे. जहाँ उनका अस्थायी डेरा लगता था वहां पानी के प्रबंध हेतु वे लोग कुँए खुदवा दिया करते थे जो उनके जाने के बाद इलाके के वाशिंदों के उपयोग में आया करते थे. यह भी खबरें, अफवाहें अथवा चर्चाएँ हुआ करती थीं कि अमुक जगह पर बंजारों का गढा हुआ खजाना मिला. लोगों की ज़बान पर हुआ करता था कि जहाँ बंजारे अपना डेरा डालते थे उनमें से कुछ स्थानों पर वे अपने धन को सुरक्षित रखने के लिए जमीन में गाड़ दिया करते थे. ये बातें बड़द बंजारों से ज्यादा ताल्लुक रखा करती थीं.
मैं बंजारा समाज द्वारा बोली जाने वाली गोरबोली से थोड़ा बहुत परिचित हूँ चूँकि यह मेरे राजस्थान की भाषा है. मैं कहीं भी बस गये बंजारे भाइयों से जब बातें करता हूँ तो अपनी बोली में बातें कर सकता हूँ. वे खूब समझते हैं रामराम सा, टाबर, बड़द जैसे शब्दों को. गोरबोली की बानगी के लिए यहाँ एक पैराग्राफ दे रहा हूँ जो बंजारा संत सेवालाल से सम्बंधित है-
‘संत सेवाभाया अपणे जीवने मा बंजारा न केतो कि सदा सासी बोलणु. हर वाते न सोंच समझन केवणु. गोर-गरीबु र दखदाल दूर करणु. घरबार आच्छो रखाडाणु. दूसरे न न सतावणु. पापे तीं छेटी रेवणु. नशाबाजी करणु छोड़ो. चोरी मत करो. सदा प्रभु न हरदेमा रकाड़ो.’
बंजारा समाज में संत सेवालाल का बड़ा ऊंचा स्थान है. वे बड़े संत और समाज सुधारक थे. एक और महान विभूति इस समाज में हुई थी जिनका नाम है गोविन्द गुरू. राजस्थान के जिला डूंगरपुर के बासिया गाँव के रहने वाले उस महापुरुष ने अंग्रेजी और सामंती शोषण के खिलाफ अलख जगाने का काम किया था. उनके संगठन का नाम था सम्पसभा. उस आन्दोलन में ब्रिटिश व सामंती गठजोड़ी फौजों से टक्कर लेते हुए सत्रह नवम्बर सन उन्नीस सौ तेरह के दिन करीब डेढ़ हजार आदिवासी शहीद हुए थे. ‘धूणी तपे तीर’ नामक मेरा उपन्यास गोविन्द गुरू के इसी अवदान और आदिवासी बलिदान पर केन्द्रित है.
राजस्थान से निकलकर बंजारे समूह विभिन्न काल-खंडों में बाहर निकलते हैं. एक दल गुजरात होता पहुंचता है महाराष्ट्र, आन्ध्र-तेलंगाना और आगे कर्नाटक. आज आंध्र-तेलंगाना राज्यों में 32 लाख, कर्नाटक में 29 तथा महाराष्ट्र में 24 लाख बंजारा हैं. दूसरा धड़ा गया मध्यप्रदेश होता पंजाब जहाँ क्रमश: 22 और 20 लाख की संख्या में हैं. राजस्थान में रह गये उनकी जनसँख्या 23 लाख है. गुजरात, मध्यप्रदेश एवं उत्तरप्रदेश में बसने वाले बंजारों में से काफी तादात में इस्लाम धर्म के प्रभाव में भी आये जो वहां मुस्लिम बंजारों के नाम से जाने जाते हैं. उत्तरप्रदेश के शाहजहांपुर, बिजनौर, पीलीभीत, बरेली, अलीगढ़, मुज़फ्फ़रनगर, इटावा, मुरादाबाद, मथुरा, एटा, आगरा, मध्यप्रदेश के जबलपुर, छिन्दवाड़ा, मंडला तथा गुजरात के पंचमहाल, खेड़ा, अहमदाबाद व साबरकांठा क्षेत्रों में इनकी जनसँख्या पायी जाती है.
जो समूह पंजाब तक गये उनमें से कई समूह आगे कश्मीर के खैबर का दर्रा पार करते हुए निकल गये अफगानिस्तान और वहां से आगे यूरोप और अमरीका तक जिन्हें रोमा, रोमानी या जिप्सी जैसे नामों से जाना जाता है. यह विस्थापन छठी से ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य हुआ. यूरोप एवं अमरीका में इनकी कुल जनसँख्या साठ लाख के आस पास बताई जाती है जिसमें दस लाख संयुक्त राज्य अमरीका, आठ लाख ब्राज़ील, पचास हजार मेक्सिको, साढ़े छ: लाख स्पेन, इतनी ही रोमानिया में, पांच लाख के करीब टर्की में, इतनी ही फ़्रांस में, पौने चार लाख बल्गारिया, दो लाख हंगरी, दो लाख ग्रीस, पौने दो लाख स्लोवाकिया, दो लाख रूस, डेढ़ लाख सर्बिया, सवा लाख इटली, इतनी ही जर्मनी में, नब्वे हजार ब्रिटेन, पचास हजार मेसीडोनिया, पचास से एक लाख के बीच स्वीडन, पचास हजार यूक्रेन, तीस हजार पुर्तगाल तथा दस हजार के इर्द गिर्द फिनलैंड में बताई जाती है. इस समुदाय का पृथक से अपना झंडा है जिसे सन उन्नीस सौ तेतीस में तैयार किया गया. सन उन्नीस सौ इकहत्तर में विश्व रोमानी कांग्रेस का आयोजन किया गया था तब उस झंडे को बाकायदा अंगीकार किया गया था. रोमानी लोगों की संस्कृति विशेषकर भाषा एवं वेशभूषा अभी भी काफी कुछ हिंदी पट्टी व राजस्थान की परंपरा से मिलती जुलती है जैसे कुछ शब्द यथा एक को रोमानी में इख या जेख, दो को रोमानी में दूज कहा जाता है. उच्चारण का तरीका और घाघरानुमा रंगीन स्कर्ट भी मेल खाते हैं. प्रथाओं में बाल विवाह, दुल्हन पक्ष को भुगतान, बुजुर्ग पुरुष व महिलाओं का सम्मान, अंतिम संस्कार के रूप में मृतक दफ़न तथा दहन दोनों शामिल होते हैं.
बंजारों के मूल उद्गम स्थल के बारे में जे जे रायबर्मन ने अपनी पुस्तक ‘एथनोग्राफी ऑफ़ ए डीनोटीफाइड ट्राइब दा लमान बंजारा’ में बंजारा विद्वान मोतीराज राठौड़ के हवाले से यह कहा है कि बंजारा मूलत: अफगानिस्तान से ताल्लुक रखते हैं. वहां गोर नामक एक गाँव है जो अपने आप में अफगानिस्तान का एक प्रान्त भी है. गोर गाँव से सम्बन्ध रखने की वज़ह से ही यह संभव है कि इनकी भाषा ‘गोरबोली’ नाम से जानी जाती हो. मोतीराज राठौड़ ने उसी गाँव से बंजारों का निकास बताया है जो कालांतर में राजस्थान में आकर बस गये और फिर पूर्वोक्तानुसार अन्य भू-भागों की ओर चले गये.
समृद्ध संस्कृति का धनी यह समाज होली जैसे पर्व को पूरे महीना भर उत्साह व उमंग के साथ मनाता है जिसमें औरत तथा मर्द शामिल होते हैं. तीज के त्यौहार को भी काफी महत्त्व दिया जाता है. अपने परंपरागत लोक देवी-देवताओं के साथ हनुमान, शिव तथा माँ जगदम्बा इन लोगों के अराध्य देव-देवी हैं. नृत्य, संगीत, रंगोली, कशीदाकारी, गोदना, चित्रकारी इनकी प्रमुख कलाभिव्यक्तियाँ हैं.
मैं जयपुर की जिस कालोनी में वर्तमान में रहता हूँ उसके आसपास घूमंतू बंजारों के कई डेरे हैं जो मूलत: पश्चिमी राजस्थान के वासी हैं. जयपुर में अन्यत्र भी ये लोग इसी कदर रह रहे हैं. इनका मुखिया भैरू बंजारा मेरा अच्छा परिचित है. उससे एवं अन्य बुजुर्गों से मैंने बंजारा समाज के अतीत के विषय में खूब बातचीत की है. इनका मानना है कि ये राजपूतों के वंशज हैं. मुझे इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिला. मैंने अक्सर यह देखा है कि बंजारों की ही तरह कई अन्य आदिवासी समुदाय अपना नाता राजपूत वंशों के साथ जोड़ने का आग्रह करते हैं जिनमें गरासिया आदिवासी भी हैं जो चौहान राजपूतों से अपना उद्भव बताते हैं. इसी तरह मीणा आदिवासियों के जागाओं की पोथियों में मीणा समुदाय की उत्पत्ति अग्निकुंड के चार राजपूत वंशजों में से एक चौहान वंश से बता रखी है जिसका कोई नृतत्ववैज्ञानिक अथवा ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं होता है. वैसे देखा जाये तो किसी भी आदिवासी समुदाय की उत्पत्ति का कोई सम्बन्ध राजपूतों अर्थात क्षत्रिय वंशों से नहीं हो सकता चूँकि आदिम समाज वर्णाश्रमी व्यवस्था का हिस्सा कभी नहीं रहा. यूँ राज करने वाले समुदायों की दृष्टि से देखें तो बात भिन्न होगी. इसकी वज़ह यह रही कि अनेक आदिवासी समुदाय अपने इलाकों में शासक रहे हैं. उनके राजवंशों के विषय में ऐतिहासिक जानकारी हमारे समक्ष उपलब्ध हैं जिनमें गोंड, संताल, भील, मीणा शामिल हैं. क्षत्रिय वंशों से जोड़ने की एक प्रवृत्ति हमें उन कई कौमों में मिल जाएगी जो सामाजिक पिरामिड में नीचे के स्तर पर रख दिये गये. भारतीय समाज को हम या तो वर्णाधारित जाति प्रणाली से निर्मित सामाजिक घटकों के रूप में पहचान सकते हैं जहाँ पहचान का एक मात्र आधार जाति होता है अथवा आदिम समुदायों के रूप में जिनमें जाति की अवधारणा नहीं होती. वहां गणचिह्न के आधार पर समूहों को पहचाना जाता है. इसी सिद्धांत के आधार पर हमें बंजारा आदिवासी समाज को देखना चाहिए.

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