बंजारा जनजाती का इतिहास

बनजारा भारत देश की एक प्राचीन जमात है। जिसकी सांस्कृतिक जडे सिंधु घाटी सभ्यतासे जुडी हुआ है। देश के लगभग सतरह प्रांतो में यह जमात स्थिर-अस्थीर रूपमें निवास करती है। बनजारा, लंबाडा, गोर, सुगाली, लमाणी, गोआर-बाजीगर, नट, ग्वार गोर, गंवारिया, कांगसी, सरकी बनजारा अदि सतरह नामों से देश में यह पहचानी जाती है। जिसकी जनसंख्या छे करोड से अधिक हो सकती है।

जिनकी अपनी स्वतंत्र भाषा तथा वेशभुषा सारे देशमें एकही है। वेशभूषा-केशभूषा, भाषा तथा, पारंपारिक सांस्कृतिक विरासत के कारण बनजारा अपनी स्वतंत्र पहचान बनाये हुए है। लोक साहित्य के अभ्यासक डॉ. शाम परमार कहते है, “बनजारा भारत कालीन इतिहास के सुत्रो में बंधा है। अपनी अनोखी वेशभुषा और रंग रूप के कारण आज भी बनजारे अपने अस्तित्व को अनेक जातियों मे पृथक घोषित करते हैं। आज हम देखते है की हजारो साल से समय-समय पर प्रवाह गमन के बाद बनजारोंकी पहचान धुंधली होती जा रही है। इस पहचान को सुरक्षित कैसे रखें, यह आज हमारे सामने की प्रमुख समस्या है। बदलाव, समय के साथ परिवर्तन तो प्रकृत और मनुष्य का धर्म है, ऊसके साथ अपनी सांस्कृतिक विरासत को जीवित रखना भी एक धर्म है।

बनजारा एक आदिम जमात है, हर एक जमात मे अपने आप पहचान कुछ लक्षण होते है, जैसे बनजारा अपने जमात आपसी पहचान के लिये गोर शब्द का प्रयोग करते। अन्य लोग उन्हें बनजारे कहकर पहचानते। यह लक्षण हर एक जमात को सामाजिक सांस्कृतिक परंपरा से मिलते हैं। इस पहचना को हमे दो भागो मे विभाजीत करते, एक आंतरित पहचान जैसे गोर दुसरी बाहरी पहचान जैसे बनजारे (गोर अन्य कोर) बीसवी सदी में बनजारा के बाह्य परिवर्तन में जबरदस्त बदलाव आया जिसका परिणाम कुछ हद तक आंतरिक खान-पान, रहनसहन, सण-त्यौहार, संस्कार-विधी, पुजा-अर्जा, देवी देवता पर होने लगा है। जिसे हमें गंभीरतासे सोचना पढेगा। बनजारा सभ्याता और संस्कृति के पांच आयाम माने जाते हैं (1) टांडा (व्यवस्था), (2) धाटी (परंपरा धर्म), (3) बाणी (भाषा), (4) बाणो (वेशभुषा) और (5) लोक साहित्य लोककला।

एक जमाना था ऊनकी ही भाषा में ढुंगर थे, जब दुर थे, अब हुआ पहचान टांडे जंगल पहाडियों के गोद में बसे हुए थे गांव से चार हात दूर पर टांडा (बस्ती) बनाकर वह रहता था। जीवन यापन के लिये या रोजमर्रा ऊपयोग मर्यादित चीच वस्तुओं की पूर्ती कर लेता। गांव तथा नागरी जीवन से पहचान होनेसे या संपर्क आने से इ. स. पूर्व तीन हजार वर्षो की अपनी पुराणी पहचान ऊसकी धुंधली होने लगी है। इस विषयपर गंभीरतासे सोचे नही तो एक दिन बनजारों की अनोखी आपने आपमें परिपूर्ण पहचान समाप्त हो जायेंगी। जिस आयाम में बनजारों की पहचान होती थी। ऊसे प्रथम देखेंगे। टांडा व्यवस्था बनजारा बसती को आजही टांडा या लमाणी बस्ती कहा जाता। आजके आधुनिक साधन संशोधन का परिणाम टांडा व्यवस्था पर इतना हो रहा हैं की एक दिन टांडा शब्द ग्राम का रूप ले लेगा। अपनी पुराणी नाईक कारभारी व्यवस्था से लेकर न्याय व्यवस्था तथा जन्म-मृत्यू संस्कार का प्रांतीय कोर कल्चर का परिणाम टांडे पर होनेसे एक दिन यह अलग सी बस्ती अपनी पुराणी पहचान भुल जायेगी। तात्पर्य टांडा व्यवस्था कारोभार पर प्रजातंत्र का प्रभाव टांडोने स्विकृत कर लिया हैं।

बनजारों की दुसरी पहचान स्वतंत्र नारी की केशभूषा, गहणे, अलंकार तथा वेशभूषा जिसके कारण बंजारा नारी की अलगसी पहचान होती थी। जो आज 95 प्रतिशत बनजारा नारी की वेशभुषा में परिवर्तन हो गया है। आज बढ़ी ठाडी, डोकरी याडी अपने पुराने लिबास में नजर आती है। दूसरी बनजारा नारी की वेशभूषा केशभूषा फिल्म जगत में फॅशन रूप धारण कर चुकी है। तात्पर्य वेशभूषा (बाणों) टांडा व्यवस्था के समान टांडा छोडकर चली गई है। तिसरी महत्वपूर्ण विशेषतः बनजारा भाषा एक जमाने सारे देशके बनजारे अपनी भाषा मे अपने जात भाई- बंधोसे बोल लेते थे, आज प्रांतीक व्यावहारिक भाषा का परिणाम बनजारा भाषापर होनेसे बनजारी भाषा (वाणी) कमजोर हो गई है। किसी भी जाती का प्राचीन इतिहास समझने के लिये भाषा एक महत्वपूर्ण माध्यम हैं। ऊसी तरह सामाजिक सांस्कृतिक लोक जीवन समझने के लिए भाषा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। बनजारा भाषा को अपनी लिपी नाही, दुसरी और आपसमे घरमें, टांडे बोलने के काम आती। व्यवहार उपयोग न आनेसे बंजारा भाषा धीरे-धीरे मृत्य अवस्था मे चली जाएगी।

बनजारा अपनी भाषा एक दिन भूल जायेगा। लोक साहित्य लोककला तो प्रदर्शनी बनकर आज टांडो-टांडो मे आ गया है कि ऊसे लोककलालोक साहित्य की आज जरूरत महसुस नहीं होती। अब हमारे सामने समस्या आती है की हमारी अस्मिता और अस्तित्व को रेखांकित करनेवाली गौरवशाली बनजारा पहचान हम कैसे जीवित रखे। टांडा व्यवस्था आधुनिक समाज रचना मे जीवित रह नही सकती। नायक कारभारी की जगह सरपंच, पोलीस पटेल ने ले ली है। प्रजातंत्रवाला संविधान हमने सरचना को जीवित हम रख नही सकते। अब हमें देश की गतिविधीयोंके साथ जुडना हैह, जुडकर साथ चलना है। भाषा अन्य कोर भी शिख सीक सकता है, तो वेशभूषा भी कोर परिधान कर सकता है। क्या हम भाषा बचानेसे या वेशभूषा बचाने के लिए प्रयास करनेवाले है, की हमारी धाटी परंपरा धर्म को गौरा विन्त कर हमारी गौरवशाली बनजारा गोरमाटी पहचान को सन्मानित ऊजागर कर

हम और हमारी पहचान जीवित रख सकते हैं। नागरी जीवन में अभी प्रवेश करने से हो सका है की, हमारे आयाम कमजोर हो गये हो जब नागरी जीवन के हर एक क्षेत्र मे बनजारा वही ताकद के साथ ऊभर कर खडा है तो ऊसका कर्तव्य बनता है ऊसका बनजारा होने का वो गर्व महसुस करें। उसका ऊसकी धाटी परंपरा धर्म को भी सन्मानित करें। रहन-सहन, खान-पान में परिवर्तन हुआ तो चलेगा किन्तु हमारी धाटी परिवर्तन नही होना चाहिऐ, धाटी परंपरा ही देश के बनजारों को एकसंघ रख सकती हैं। जब बुद्धिजीवी अपनी धाटी को सन्मानित करेगा तो सामान्य आम आदमी भी ऊसका अनुकरण करेगा। हम सब हिन्दु धर्म के सण त्यौहार, संस्कार अपनी अलग तरीकेसे धाटी परंपरा द्वारा मनाते है। इद धाटी को जीवित रखने से हमारी पहचान बनी रहेगी। कोर वेशभूषा भाषा का अनुकरण करेगा, मगर वह सळोई, नारोजा ओरी समनक भोग धडधडी पूजा नही करेगा वह होली खेलेगा पर अपने लडके का ढुंढ नही करेगा। इस तरह से अपनी धाटी परंपरा को अपना हम धर्म समझते, वही धाटी हमारी सांस्कृतिक पहचान बरकरार रख सकती है।

धर्मगुरू धर्म ग्रंथ की आवश्यकता : एक जमाने से बनजारा समाज को प्रकृति पूजक, पितृ पूजक तथा देवी पूजक को ही अपने धर्म मानता था। चाहे ऊस हम गोरमाटी धर्म कहे। विशेष रूपसे मोगल काल में धाक धपड से कहीं टांडोने मुस्लीम धर्म अपनाने के लिये मजबुर हुए, जो आज अपनी पहचान मुस्लीम बनजारा करके ही देते है। गुरू नानक के संपर्क मे आने से कही बनजारोंने शिख धर्म को अपनाया। जो शिख बनजारे नामसे पहचाने जाते है। इ.स. 1871 क्रिमिनीयल ट्राइन्स ऍक्ट द्वारा बनजारा जाति को भी जराम पैशा (गुनहगार जमात) जाति करके कानुनन घोषित किया गया। इसाई मशनरीयोंने इनके सेटलमेन्ट कॅम्प मे जाकर इसाई धर्म स्विकृत करने के लिये इन्हें बाध्य किया। बहुतसारे बनजारे लाचारीयों से मजबुरीसे तथा द्ररिद्रता के कारण ईसाई बने जो आज इसाई बनजारा कहलाते है।

रहे सो सारे देश के बहुसंख्य बनजारे देखा देखी अपने आप को हिन्दु धर्मीय कहलाते है। आज कहीं टांडोपर मज्जीद, तो कहीं टांडोपर गुरूद्वारा, तो कहीं चर्च बनते नजर आ रहे है। विशेष रूपसे आंध्र और कर्नाटक के टांडे इसाई मशनरीयों ने बनजारों को इसाई बनाने की एक योजना ही बनाई है इस बात को गंभीरतासे सोचकर धर्मान्तर रोकना जरूरी है। तो दुसरी और अपने अस्तित्व के लिये गोरमाटी बनजारा धर्म का प्रचार करना जरूरी है। ऊसके लिये एक आचर संहिता बनानी होगी, जिसे देशके सारे बनजारे अपनाये यह आचार संहिता हमारी धाटी होगी कुछ चाहे बनजारे छोडे चाहे नयेसे ऊसमे परिवर्तन करें। संत सेवालाल मर्या देवी को लगभग सारे देश के लोग बनजारे देवी-देवता तथा श्रद्धा के रूपसे मानते हैं। संतसेवालाल हमारे धर्मगुरू है, तो ऊनके विचार-बोल हमारी धार्मीक संहिता है। संत सेवालाल महाराज हमारे आदर्श श्रद्धा स्थान तथा गोरमाटी बनजारा धर्म के आद्य महापुरूष है। इनकी आचार-विचार की जीवन गाथा धाटी परंपरा से जोडकर हम पवित्र धार्मिक ग्रंथ का निर्माण कर सकते। उसे साथ हर एक बंजारा बस्ती मे चाहे शहर महानगर मे पांच-दस परिवार हो वे तीज-त्यौहार होली तता विवाह या सेवाभाया जैसे महापुरुष जयंती, स्मृती दिन तथा गोठ ओरी समनक भोज जैसे सार्वजनिक कार्यक्रम, स्त्री-पुरुष, युवापिढी सामाजिक सांस्कृतिक भाईचारा एकता बनाने रखें।

जिसे समाज एक जगह बार-बार आ सके ऐसे कार्यक्रम का नियोजन करें। दुसरी और हर टांडे, बस्ती मे संत सेवाभाया या मर्या याडी का मंदिर गुडी-देवळ अत्या आवश्यक बनाये। अपने भजण्या- गावण्या ऊसकी देखभाल रख सकते। तिसरी और हमारे यात्रा, मेले-जात्रा के पवित्र धाम जो है, उसे भव्य बनाये उस तरह नये नये ऐतिहासिक धार्मीक श्रद्धास्थान ढुंढकर उसका पूर्व निर्माण कर बनजारा समाज की पहचान निशानियाँ हम निर्माण करें जिसे बनजारों की पहचान कभी लुप्त नहीं होगी।

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