व्यापारी कौम बंजारा नायक थे-बाबा लक्खी शाह

बाबा लक्खीशाह बंजारा का जन्म रायसिना टांडा दिल्ली में हुआ पिता गोघू बंजारा एवं दादा ठाकुर दास बंजारा है । बाबा लक्खीशाह बंजारा हिन्दुस्तान का व्यापारी कौम बंजारा का नायक थें । ये एक बड़े व्यापारी थे जिनके पास दो लाख बीस हजार बैलों की बालदे थी। बाबा लक्खीशाह के आठ सुपुत्र एवं एक सुपुत्री थी जिसमें से सात पुत्रों ने रणभूमि में लड़ते–लड़ते हुए अपने बलिदान देकर कौम की रक्षा की नौवे पातशाह श्री गुरु तेगबहादुर जी के बलिदान के बाद बाबा लक्खीशाह बंजारा व उसका बेटा नगहिया रूई व दूसरे सामान की गई बैलगाड़ियाँ लेकर चाँदनी चौक पहुंच गये तथा भीड़ को चीरते हुए बैलगाड़ियों को निकालकर आगे ले गये उन्हों बड़ी फूर्ति के साथ गुरुजी के धड़ को उठाया और रूई के ढेर में छिपा दिया तथा गाड़ियों को हांककर अपनी बस्ती रायसिना टांडा ले गये। दूसरे तरफ मुगल सिपाही परेशान थे कि गुरुजी का शीश और धड़ कहा गायब हो गये ।
मुगल सरकार के डर से चूंकि खुलेआम संस्कार करना खतरनाक था इसलिए बाबा लक्खीशाह ने शहीद गुरुजी के धड़ को बड़े सत्कार के साथ अपने घर ले गये और अंतिम अरदास के बाद उन्होंने अपने घर को ही आग लगा दी घर धूं–धूंकर जल रहा था लपटे निकल रही थी । सम्पूर्ण आयु तिनका–तिनका जोड़कर बनाया असियाना बाबा लक्खीशाह बंजारा के जीवन का आश्रम स्थल उनके व उनके परिवार सम्मुख भस्म हो रहा था वह दाहड़ रहे थे बचाओं–बचाओं का शोर मचा रहे थे परन्तु अपने घर को आग की लपटों से बचाने का प्रयास नहीं कर रहे थे वे सन्तुष्ट थे कि वाहिगुरु की कृपा से वे श्री गुरु तेगबहादुर साहेब का धड़ सही सलामत उठाकर लाने से उसका दाह संस्कार करने में सफल हो गये । गुरुजी की पवित्र मृत देह से मुगल खिलवाड़ करें, कोई अपवित्र हाथ उनकी पावन देह को स्पर्श करें यह उन्हें सहनीय नहीं था ।
लोगों के मन में दहसत फैलाने के विचार से तत्कालीन मुगल हुकुमत ने निर्णय लिया कि गुरुजी के पावन शरीर के चार टुकड़े कर राजधानी दिल्ली के चार प्रमुख दरवाजों दिल्ली, अजमेरी, लाहोरी, और कश्मीरी पर लटका दिये जायेंगे । भाई जैताजी, भाई उदय जी बाबा लक्खीशाह बंजारा भाई नानू और मख्खनशाह ने गुरुजी की पावन देह को सम्भालने की योजना बनाई इन सबकी सहायता से बाबा लक्खीशाह बंजारा गुरुजी की मृत धड़ उठाने में सफल हो गये और अपनी बैलगाड़ी में रखकर वो गये । बाबा लक्खीशाह बंजारा गुरुजी के पावन शरीर को साफ सुतरे कपड़े में लपेटकर अपने घर के अन्दर रखकर फटाफट उसे आग लगा दी लोग दिखावे के लिए वे बचाओ–बचाओ की आवाजे लगाने लगे जो भितरी आनन्द और सकुन बाबा लक्खीशाह बंजारा को प्राप्त हो रहा था वह अनमोल था । इस सेवा और त्याग के द्वारा उनका नाम सदा–सदा के लिए इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा गया । वे (नियावी) सब कुछ लुटाकर रोहानी दौलत से मालामाल हो गये । आज भी नई दिल्ली में स्थित गुरुद्वारा रकाबगंज साहिब गुरुजी के साथ–साथ बाबा लक्खीशाह बंजारा और उनके परिवार का साहस की गाथा सुना रहा है । श्री तेगबहादुर साहेब को अपने धर्म–पथ से विचलित करने के लिए औरंगजेब द्वारा अनेक प्रलोभन और यातनाएँ दी गई । उन्हें और उनके सभी सिख्खों को चालीस दिन तक जंजीरों में जकड़कर तयखाने में रखा गया । गुरुजी को लौहे के पिंजरे में कैद कर रखा गया । उनके साथ भाई दयालाजी को उनके सामने गर्म पानी की देग उबालकर शहीद कर दिया गया । भाई मतीदास के शरीर को आरे से चीरकर दो टुकड़े कर शहीद कर दिया गया। भाई सतीदास जी को रूई में लपेटकर जिंदा जलाकर शहीद कर दिया । दानवता खिलखिलाकर हस दी । मानवता सिसक उठी । शांति के कुंज श्री गुरु तेगबहादुर साहेब अडोल अवस्था में बैठे प्रभु नाम में तल्लीन रहे। औरंगजेब द्वारा गुरुजी को झुकाने के प्रयास में गुरुजी ने औरंगजेब से ललकार कर कहा तुम्हारी तलवार तैयार है तो मेरा सिर झुक नहीं सकता ।
जब गुरुजी किसी तरह भी औरंगजेब के सम्मुख सिर झुकाने के लिए तैयार नहीं हुए तो उन्हें चाँदनी चौक के स्थान पर शहीर कर दिया गया। उस समय भारतीय जनता इतनी कायर, निस्तेज और निप्राण हो चुकी थी कि इस अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाने का साहस किसी में न हुआ इस अत्याचार को देखकर सारे शहर में हाहाकार मच गई कहते हैं कि उस समय तेज आंधी (Aंधड़) आई । इस आंधी से लोगों में भगड़ मच गई । इस भगदड़ में आंख बचाकर भाई जैता जी गुरुजी की पावन शीश उठाकर श्री अंनदपुर साहिब की तरफ चल पड़े तथा बाबा लक्खीशाह बंजारा ने गुरुजी की पावन मृतक धड़ को उठा लिया लेकिन गुरुजी की पवित्र देह के अपमानित होने बचा लिया और रीतिरिवाजों के साथ संस्कार किया । बाबा लक्खीशाह बंजारा ऐसे गुरु के सिख थे । उन्होंने हिन्द की चादर को मैला होने से बचा लिया और औरंगजेब की शातिरचाल को नाकाम कर दिया जहां बाबा लक्खीशाह सुशीमित है यह गुरुद्वारा रकाबगंज नई दिल्ली के राष्ट¬ाsय भवन, संसद भवन केद्रीय सचिवालय के समीप स्थित है जिस रास्ते से बाबा लक्खीशाह बंजारा गुरुजी का धड़ चांदनी चौक से वर्तमान गुरुद्वारा रकाबगंज ले गये थे । बाबा लक्खीशाह बंजारा की याद में गुरुद्वारा रकाबगंज परिसर में एक बहुत विशाल एवं भव्य बाबा लक्खीशाह बंजारा हाल स्थापित किया गया। जहाँ गुरुपर्व तथा अन्य मुख्य समारोह मनाये जाते हैं। बाबा लक्खीशाह 21 जून सन् 1679 ई. रायसिना टांडा रकाबगंज दिल्ली में उन्होंने अंतिम सांस ली

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