Kailash D. Rathod

“और कब तक जिना है गुलामी के साथ”
अंग्रेजो की गुलामी टूट सकती है, मुसलमान की गुलामी टूट सकती है, हिंदु की गुलामी टूट सकती है; गुलामी नयी शक्लों में फिर से खड़ी हो जाती है. पुरानी की पुरानी गुलामी फिर सिंहासन पर बैठ जाती है. हां, इतना फर्क पडता है कि पुरानी गुलामी से हम ऊब गए हैं, नयी गुलामी से ऊबने में फिर थोड़ा वक्त लगता है. फिर इसको भी बदलने कि इच्छा होने लगती है. जैसे कोई आदमी मरघट ले जाता है लाश को, अरथी को. एक कंधा दुखने लगता है तो अरथी को दुसरे कंधे पर रख लेता है. थोड़ी देर राहत मिलती है. फिर दुसरा कंधा दुखने लगता है. अरथी वही है, बोझ वही है, कंधे बदलने से कुछ भी नही हो सकता. गुलामियां बदलती रही हैं, गुलामी नही मिटी; क्योंकि आदमी का दिमाग गुलाम है. और हम गोर बंजारा संघर्ष समिती के निस्वार्थी समाज सेवक मिलकर समाज कि गुलामी मिटाने की कोशिस कर रहे है. और आदमी का गुलाम दिमाग नयी गुलामियां पैदा कर लेता हैं…. जब तक हम सब मिलकर यह सोंच नही लेते कि हमे बदलना होगा तब तक हमे गुलामी मे ही जीना पडेगा. चाहे दुसरों कि गुलामी होया खुद के दिल की….जुडो और जोडो…
जय गोर………..जय सेवालाल…आपका समाज शुभचिंतक…
गोर कैलास डी.राठोड
सदस्य गोर बंजारा संघर्ष समिती.